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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।

सहो मत, तोड़ फेंको !


कई साल बाद मैं अपने उन मित्र के घर गया, तो मुझे वे एक नये आदमी-से लगे। हँसी उनमें फूट-बिखरी, तो मस्ती उठ-उभरी, चुलबुले वे इतने कि राह चलतों से छेड़ कर बातें करें, पर अब देख रहा हूँ कि उन पर एक बोझ-सा लदा है और जैसे वे कुछ खोये-खोये-से हैं। वे हँसते हैं, तो उस हँसी में कहीं प्राण नहीं और जी रहे हैं, तो जैसे अनमने होकर !

देखा था बसन्त तो देख रहा हूँ पतझड़, बहुत अजीब-सा लग रहा है उनके साथ रहना, पर पूछता हूँ उनसे कि भाई, यह सब क्या है तो कहते हैं, “कुछ नहीं, बहुत दिन में मिले हो, तभी ऐसा लगता है, ठीक तो हूँ।" पर ठीक कहने से ठीक हुआ करता तो यह दुनिया आज तक जाने कैसी हो गयी होती। देख रहा हूँ कि चल तो सभी कुछ रहा है, पर चूल हिली हुई है।

क्या मैं आपके पीछे आपकी डायरी पढ़ सकता हूँ इन तीन वर्षों की?" दफ़्तर जाते हुए मित्र से मैंने पूछा तो वे खोखली-सी आँखों मुझे देखते रह गये। मुझे मालूम था वे बराबर डायरी लिखते हैं और उस डायरी में वे खुद होते हैं तो उसमें उनके मन का बोझ भी होगा !

मित्र बोले कुछ नहीं, अपनी दराज़ से निकालकर दो वर्षों की डायरियाँ मेरे पास रख गये। दोपहर में मैंने चालू वर्ष की डायरी उठायी तो पाँच-सात दिन पहले के पेज़ पर उन्होंने अपने मानसिक संघर्ष का यह सार दे रखा था:

"देख रहा हूँ कि गम्भीर होता जा रहा हूँ और जिस प्रसन्नता के सहारे मौत जैसे मोर्चों पर भी मैंने हार न मानी, वह बुझती जा रही है। इस तरह मैं एक धनकुबेर से निर्धन होता जा रहा हूँ और डर है कि यह निर्धनता मुझे भिखारी न बना दे।

यह क्यों हो रहा है?

पिछले दो वर्षों में मैं अपनों के द्वारा बहुत पीड़ित हुआ हूँ। क़साई जो जानवर को क़त्ल करता है, वह उस पीड़ा से बहुत कम है। उसका प्रहार एक बार होता है, यह निरन्तर हुआ है। उस पीड़ा का प्रहार के बाद अन्त हो जाता है, यह प्रहार के बाद और भी उफनती है। फिर यह प्रहार उस मनुष्य के हाथों होता है जिसका हित ही उस प्रहार की सफलता में है। यह प्रहार उन हाथों हुए कि जिनका हित मेरे जीवन के साथ नत्थी है।

क्या मैं उनसे कमज़ोर हूँ?

जिनके द्वारा ये प्रहार हुए हैं मैं उनसे कमज़ोर नहीं हूँ क्योंकि वे मुझ पर निर्भर हैं, मैं उन पर नहीं। फिर? फिर क्या, मैं अपनी नम्रता और अपार स्नेह से उन प्रहारों को सह गया हूँ। मुझे सुख है, सन्तोष है कि मैंने प्रहार पर प्रहार नहीं, प्रहार पर प्यार ही किया है, पर इसमें सन्देह नहीं कि ये चोटें मेरी मस्ती को चाट गयी हैं।

संघर्ष में लिखने और खेलने की आदत रही है। कभी भय और आशंका मुझे स्पर्श भी नहीं कर पाते। संघर्ष उत्तेजना देता है और वही उत्तेजना संघर्ष लड़ती है; इस तरह थकान का पास फटकना सम्भव ही नहीं होता।

फिर मैं थक क्यों गया?

मैं थक इसलिए गया कि संघर्ष में उत्तेजना नहीं, हीनता का धुआँ ही चारों ओर भरा रहा। मैं कुछ कहूँगा तो इन्हें दुःख होगा, इस भावना से मैं उस नरक को सहता रहा जिसे वे पूरी ताक़त से उछालते रहे और इस तरह मेरी जीवन-शक्ति कुण्ठित होती गयी।

क्या इसका कोई उपाय न था?

उपाय था असहयोग, दीनता और हीनता से दूर हो जाना और उन्हें अपने से दूर झटक देना, पर स्वभाव की गहरी ममता उन्हें दुत्कार न पायी और पुचकार से वे अपने को सँभाल न पाये। मैंने बहुत बार सद्भावना से दुर्भावना पर विजय पायी है, पर इस बार दुर्भावना इतनी प्रचण्ड है कि मैं
उसे ममता की आँच से पिघला न पाया और खुद ही उसमें झुलस गया हूँ।

उन पर इसका क्या प्रभाव पड़ा?

देख रहा हूँ कि मेरे मिटते जाने से उन पर प्रभाव पड़ता है, पर यह प्रभाव उन्हें उनकी हीनता से विमुख नहीं करता, उलटे प्रचण्ड होकर वे पूछते हैं, यह मिट क्यों रहा है? वे उस डॉक्टर की तरह हैं जो रोग को तो समझना नहीं चाहता, पर दवा देने के लिए आग्रही है। अपने को बदलकर मुझे पल-भर में ताज़गी दे सकते हैं, पर यह शायद वे सोचते ही नहीं।

सोच रहा हूँ कि वे बदलेंगे या मैं ही करवट ले जाऊँगा। सीख रहा हूँ कि बहुत नम्रता एवं कोमलता का भी यह युग नहीं है !"

मित्र की डायरी में और भी बहतं कुछ था, पर मेरे लिए अब उसकी आवश्यकता न थी; क्योंकि मेरे सामने स्पष्ट था कि मित्र महाशय आत्मीयों के आत्महीन व्यवहार से पीडित हैं। यह पीडा उनके लिए असह्य है, पर वे करें क्या? और कुछ कर नहीं पाते तो घुल रहे हैं।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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